मेरे मित्र

Wednesday, May 1, 2013

अर्धांगिनी

कैसे विश्वास दिलाऊँ तुम्हे ,
उस सच का ,
जो मेरे लिए मृत्यु सरीखा है ,
जो आना ही है |
और तुम्हारे लिए ,
मेरा वो सच
बस एक
बहाना ही है .........
खुद को छिपाने का ........
और मुझे लगता है ,
यही जरिया है
तुममे मिल जाने का |
खैर ये समझने समझाने का खेल
युगों तक खेला जाने वाला है ,
सीता हूँ मैं ,
अग्नि परीछा की मोहताज
बिना उसके कहाँ मिलेगा ,
अर्धांगिनी होने का ताज
तुझमे हूँ ,
तुझसे हूँ ,
ये शायद तुझे तब समझ आएगा ,
जब मेरे न रहने पर
रसोईं के बर्तन तुझसे कुछ न बोलेंगे ,
अलमारी में रखे तुम्हारे कपडे
लगे बटन का राज़ खोलेगे ,
और लौटने पर
तुम्हे
दरवाजे की देहरी पर खड़ी
मैं न मिलूंगी ,
बस मिलेंगी मेरी यादें|

No comments:

Post a Comment