मेरे मित्र

Wednesday, May 8, 2013

यात्रा

मेरे जिस्म मेरी आत्मा को
कुरेदती चली गयी दुनिया
ज़ख्म बनते गए
और थाम लिया उसने अपने दोनों हांथों से हमें
कहकर
की कभी अकेला नहीं छोड़ेगा ,
कभी अब लोगों की भीड़ मुझे छल न सकेगी ,
और मैं फिर एक भरोसा
की हाँ यही अपना है
ये मुझे बचा लेगा
हाँ बस यही यही मुझे बेपनाह प्यार करता है |

पर कैसा ये प्यार है उसका ,
जिसकी वो रोज़ रोज़ दुहाई देता है ,

आज जब सबको छोड़ मैं जब
उसकी राह पर हूँ
वो रोज़ मुझे याद दिला रहा है
जो ज़ख्म मैंने उसे दिए ,
या मेरे उस अपनेपन ने
जो सबको अपना मानती रही |

वो रोज़ मुझे गलत साबित करता रहा
रोज़ मुझे और मेरे ज़ख्मों को कुरेदता रहा
और मुझे अपने ज़ख्मों से ज्यादा
दर्द इसलिए होता था
क्योंकि
वो ऐसा कर बार बार
कुरेद रहा था अपने जिस्म के ज़ख्म भी
जिनका कारन मैं ही थी ............

मैं चाहती थी
वो मेरे आज किये हर झगड़े को ,
मेरा अधिकार समझे
पर वो उन्हें फिर मेरी की एक भूल कहता रहा |
वो हमारे आज के प्यार को मेरा एहसास समझे
पर वो उसे मेरा प्रायश्चित समझता रहा |
मेरे हर एक आंसू को जो उसके लिए बहे थे
उन्हें मेरे अन्दर अपने दर्द का एहसास समझे
पर वो उन्हें
किसी और की याद समझता रहा |
शायद यही नियति है
यही नियति का फैसला
जब मैं उसकी नहीं थी
तब वो
मुझे अपना समझ
खुश होता रहा |
और आज
जब उसके अतिरिक्त
कोई नहीं
न सांसों में ,
न बातों में ,
न सुख में ,
न दुःख में ,
तब वो दुखी है
भूत को बार बार अपना वर्तमान बना |

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