मेरे मित्र

Monday, June 17, 2013

तबाहियां

तबाहियों के मंजर
हमेशा से समाचार चेनलों में
देखे थे............
पर आज कल तो ये मंजर
आम जीवन का हिस्सा हो गए हैं
हाँ
रोज दिखते हैं
रोज महसूस करती हूँ मैं इन्हें
अपने जीवन में ............

साथ

कल तक
चारों और
बस निराशा और बस अन्धकार
कुछ न करने की चाह
जीवन से विरक्ति
खाली हाँथ
खाली मन
और
खाली मस्तिष्क
लिए मैं
अपनी ही गलतियों के परिणाम
ढो रही थी .........
शायद तुम न समझ सको
पर तुम्हारा न होना
मेरा ना होना है ,
खुद को खो देने जैसा .......

फिर अचानक क्या हुआ की
आज फिर
खुद को ,
हिमालय के शिखर पर
पाती हूँ मैं ,
विजय ध्वज लहराते हुए ,
उल्लासित ह्रदय से ,

क्यूंकि
तुम अब साथ हो मेरे |

Monday, June 10, 2013

गुहार है

पित्जा खाने वालों से गुहार है ,
रोटी की भी कहीं कहीं मार है |
जो रहता है ए सी में वो क्या जाने ,
गर्मी से लाखों का बुरा हाल है |
देश गरीब हो रहा लेकिन नेता खेलें लाखों में ,
रोज बढ़ रहे दाम आम के बैठे हैं हम फाकों में ,
घूम रहा अम्बेसडर में वो क्या जाने ,
संसद के बाहर जनता बेहाल है ,
पित्जा खाने वालों से गुहार है ......................

नान , पनीर ,कबाब , कोफ्ता खा कर काफी पी कर ,
निकला बड़े बाप का बेटा बी.एम् .डब्लू लेकर ,
वो अमीर का लाल बात ये भूल गया ,
जिसके प्राण लिए तफरी में वो भी माँ का लाल है ,
पित्जा खाने वालों से गुहार है ......................

कल तक हर घर में नवरात्रों पर पूजा था हमने जिनको ,
पैर पकड़ कर आशीष लिया था आज तज दिया उनको ,
फेंकने वाला उन्हें फेंक कर भूल गया
बेटे की तरह उनमे भी जान है ,
पित्जा खाने वालों से गुहार है ......................

Friday, May 24, 2013

तुझे मिटना है

ये बताने के लिए कौन किसका कितना है ,
प्यार दिखलाना है पड़ता ह्रदय में जितना है |
मौन की राह पर मंजिल नहीं मिलती अक्सर ,
हक़ से उस नाम के साथ नाम तुझको लिखना है |
दौर इस तरह का है दोस्त मेरे सुन ले तू ,
कुछ भी पाने के लिए रोज़ तुझको बिकना है |
प्यार वरदान है पर इतनी परीछा लेगा ,
जिंदा रहने की कसम खा के तुझे मिटना है |
 

Saturday, May 18, 2013

जीवन दर्शन

सुधरने और बिगड़ने का भी सब का वक़्त होता है ,
कोई बचपन की गलती फिर बुढ़ापे में नहीं करता |
जिसने कल तलक झेली हो पर्दों की कमी घर में ,
किसी नंगे बदन को और वो नंगा नहीं करता |

की जिस बच्चे ने आँगन में छिड़ी देखी महाभारत ,
वो बच्चा फिर किसी भी बात पर दंगा नहीं करता |


हो जिसकी ज़िन्दगी में प्यार के रंगों की फुलवारी
वो अपने कैनवस को फिर कभी रंगा नहीं करता |

अगर इंसानियत इंसान में आ जाये तो फिर वो ,
किसी की माँ के आँचल को कभी गन्दा नहीं करता |


Wednesday, May 15, 2013

नयी शुरुआत

फिर नए उत्साह से मैंने नयी शुरुआत की है ,
आज के इस अंशुमान ने नयी प्रभात की है |

है जगे कुछ स्वप्न नयनो के तले जो सो रहे थे ,
और निद्रा की गली में बेवजह ही रो रहे थे ,
आज फिर मेरे ह्रदय ने प्रेम की बरसात की है ,
फिर नयी शुरुआत की है |

पर कटे पंछी हुए थे आसमा को तक रहे थे ,
और अपने भाग्य को हम रोज ताने कस रहे थे ,
आज गुरु के शब्द से मैंने नयी उड़ान ली है ,
फिर नयी शुरुआत की है |

कौन कहता है मुझे अब रोक लेगा विश्व सारा ,
मैं समंदर बन गयी हूँ बांध है और न किनारा ,
आज फिर मैंने मेरी पायल से एक झंकार की है ,
फिर नयी शुरुआत की है |

Monday, May 13, 2013

ऊर्जा

मुझे परिवर्तित करने में
निरंतर लग्न हो तुम ,
कभी मेरी हंसी को ,
कभी मेरी बोली को ,
कभी मेरे वाद विवाद को ,
कभी मेरे ह्रदय के सुख और विषाद को ,
मेरे पहनने के ढंग को ,
मेरे चेहरे के रंग को ,
मेरे गाये राग को ,
तुझसे किये गए मेरे हर संवाद को ,

कितनी ऊर्जा है तुममे ,
तुम खुद को शाश्वत बनाने की प्रकिया छोड़ ,
संलग्न हो
मुझे परिवर्तित करने में|

शिव

कोई मुझे ये समझाए ,
की क्यूँ
मैं खुद को बदलूं ,
जब उसने मुझे ऐसा बनाया है ,
जो मुझे ऐसा देखना चाहता है ,
मेरा और तुम्हारा
शिव|

Sunday, May 12, 2013

वो नयी दुल्हन |

अपने घुटनों को
अपने पेट में छिपाए ,
सर अपनी छाती से लगाये ,
एक पुराने से कमरे में ,
नए कपड़ों में सजी
नए भावों से बंधी ,
वो
कभी मुस्कुराती ,
कभी शर्माती ,
कभी किसी के आने पर और
सिमट जाती ,
कभी जीवन के इस बदलाव के भय से ,
अपने पिता की याद में गुम हो जाती
वो नयी दुल्हन |
कल अपना आँगन छोड़ते ही
अपना लिया मेरा आँगन ,
अपने कमरे की साज सज्जा
से जयादा उसे भाई ,
मेरे कमरे की अस्तव्यस्तता ,
एक रात ही तो गुज़री थी ,
मैं समझ ही न सका
कौन है वो , कैसी है वो ,
क्या भाता है उसे ,
कौन रिझाता है उसे ,
पर अगले दिन सुबह
मेरी पसंद का नाश्ता बनाती ,
वो नयी दुल्हन |
 

Friday, May 10, 2013

चाँद में रोटी

रच रही हूँ अपने ही हांथों नया आकाश देखो ,
और फिर उड़ने की चाहत का मेरा आगाज़ देखो |
श्वेत सुन्दर और चमकीला अनन्त असीम है जो ,
आज मेरे स्वप्न में परियों का ऐसा चाँद देखो |
फिर नए मुक्तक सुनाती ज़िन्दगी खुश सी लगी थी ,
पर ज़रा झांको ह्रदय में गम का वो सैलाब देखो |
कल बहुत सी रोटियां फेंकी थी हमने बच गयी थी ,
जिनको दिखती चाँद में रोटी उन्हें इकबार देखो |
स्वप्न लाखों के करोड़ों में हैं बिकते आज कल पर  ,
एक नंगे से बदन का बिक रहा सम्मान देखो |

मीरा

फिर नए लब्बों लबाबों से घिरी जाती हूँ मैं ,
फिर तुम्हारे प्यार में दर दर फिरी जाती हूँ मैं

राधिका सी है नहीं किस्मत की पा लूं मैं तुम्हे ,
इसलिए मीरा सी बन कर विष पिए जाती हूँ मैं |

सोचना फिर तुम परख कर देखना एक बार फिर ,
दर्द के एहसास लेकर सुख दिए जाती हूँ मैं |

एक वो दिन था की तुमको देखती थी रोज़ मैं ,
एक दिन है आज का तुझ बिन जिए जाती हूँ मैं |

फिर नए उन्वान हैं और फिर नए आगाज़ भी हैं ,
खोल सांकल कैद की सपने लिए जाती हूँ मैं |

दौर है कुछ इस तरह का हर कोई भगवान् है ,
इसलिए इंसान बन कर अब जिए जाती हूँ मैं |


Thursday, May 9, 2013

मेरा सत्य "तुम"

तुमने सदा ही मुझे
उस सत्य का एहसास कराया
जो तुम्हारे लिए भले सत्य हो
पर मेरे लिए आज तक वो तुम्हारा भ्रम ,
हाँ तुमने मुझे बताया
की मुझे तुमसे प्यार नहीं |
पर
कैसे कहा तुमने
और क्यूँ कहा तुमने
जब मैंने आज तक
तुमसे नहीं कहा
की तुम भी मुझसे प्यार करते हो |
तुम खुद को सत्य समझो
और मैं तो इसी सत्य में जी रही हूँ
तुम्हारे लिए
जो मेरा भ्रम है ,
वही मेरा सत्य |

समर्पण

तुम्हे देख
मेरा चुप हो जाना
मुझे तुम्हारे प्रति
अपना सम्मान लगता ,
और तुम्हे
अपने हाँथ से बनी रोटी खिला देना ,
तुम्हारे लिए अपना दाइत्व ,
तुम्हारे कमरे को समेट कर
मैं
यूँ प्रफुल्लित होती मानो
मैंने सारे जग की कलुषता धो दी हो ,
और तुम्हारे जाने के बाद ईश्वर से
तुम्हारे लिए प्रार्थना करना ,
तुम्हारे लिए मेरी परवाह ,
यूँ ही कई दिनों तक ,
चलता रहा ये खेल
खुद से आँख मिचोली का ,
आज ये क्या हुआ
तुम्हे सोते हुए
देखने की ख्वाहिश में ,
तुम्हारे कमरे के काउच पर ,
बैठे बैठे सो जाना,
और तुम्हारा जग कर ,
मुझे देख ,मुस्कुराकर,
चले जाना ,
शायद अब मैंने जाना है
की
ये सब मेरा तुम्हारे लिए
समर्पण था |     

अब मैं पत्नी हूँ

कितना आसन था 
तुम्हारी प्रेमिका बन जाना ,
कितनी अतिशयोक्तिया सुनी थी मैंने 
अपने लिए 
कभी भी कहीं भी 
सुनने में आ ही जाता था ,
मैं ऐसी हूँ 
मैं वैसी हूँ 
प्रेम की मूर्ती ,
दया की देवी ,
ममत्व से भरी एक लड़की ,
जो बस सुख ही प्रदान करती थी ,
लोगों के चेहरों को मुस्कान से भरा करती थी ,
तुम्हारी इतनी परवाह
तो कभी किसी ने की ही नहीं
जितनी मैंने की 
माँ से अधिक भोजन मैंने कराया ,
बहन से अधिक स्नेह मैंने दिया ,
पिता से अधिक सुरछित तुम मेरे साथ महसूस करते थे,
और दोस्तों से अधिक तब मेरा दम भरते थे |
फिर क्या हुआ आज 
मैं आज भी वही हूँ 
समाज के कलुषित वातावरण से लड़ने वाली ,
हर नंगे बदन पर अपने दुपट्टे से छाव करने वाली ,
हर बच्चे को गोद में उठा स्नेह करने वाली ,
हाँ कुछ बदला है तो समय 
जहाँ छली गयी मैं 
कुछ ऐसे ही बच्चों से 
जिन्हें ममता बांटने में ,
मैं खुद ही बंट गयी |
हाँ वहीँ हूँ मैं बस छली हुयी ,
और आज मेरे लिए की तुम्हारी सारी अतिशयोक्तियाँ ,
पलट गयी हैं 
अब मैं वो माँ हूँ 
जो अपने बच्चे की न हो सकी ,
अब मैं वो लड़की हूँ 
समाज की कलुषताओं को न धो सकी,
अब मैं एक खंडित मूर्ती हूँ  
क्यूंकि अब मैं प्रेमिका नहीं 
पत्नी हूँ |

Wednesday, May 8, 2013

पर जीने की कुछ शर्तें हैं |

रोज़ प्रात के साथ
जन्म दे कर मुझे
अपने प्रेम का सिंचन कर ,
वो पल्लवित करता है ह्रदय को मेरे ,
और ह्रदय में लाखों करोड़ों स्वप्न ,
लाखों आशाएं
कुछ कर गुजरने की चाहें
और जैसे ही मैं स्वप्नों को सच करने की
चाह में
उठाती हूँ प्रथम कदम
ये मान की ये घर मेरा है ,
जी सकती हूँ खुल कर यहाँ ,
अपने अनुसार
सजा सकती हूँ अपने निकेतन को ,
वो आकर
मेरी लगाई समस्त
पेंटिंग्स हटा देता है ,
क्यूंकि वो उसे पसंद नहीं
किसी का रंग ,
किसी का चित्र ,
किसी के भाव ,
और
किसी का आकार ,
और दिला देता है मुझे एहसास
की घर मेरा है
मैं उसे सजा सकती हूँ
पर तब
मैं अपने ह्रदय से अपने घर को सजाने की
अपनी कल्पनाएँ निकाल फेंकू
और
सजा लूं अपने ह्रदय में वो सब जो उसके ह्रदय में हैं ,
बदल लूं खुद को
उसकी भावनाओं के अनुसार
हाँ
हक़ मिला है
जीने का मुझे
पर जीने की कुछ शर्तें हैं

"ॐ नमो भगवते वासुदेवाये |"

किसी ने सच ही कहा है
सत्य को सिद्ध करने का प्रयत्न
मात्र मूर्खता है |
क्योंकि सत्य को
किसी "इति सिद्धं" की आवश्यकता नहीं |
और सत्य तो तब ही सिद्द हो सकता है
जब मानव मष्तिष्क
मानना चाहे उसे सत्य |
सौ तर्क वितर्क कुतर्क
रख देता है मनुष्य
एक सत्य को
असत्य सिद्ध करने को ,
पर
रावण को राम की
उपस्थिति तभी समझ आती है
जब मोक्ष की प्राप्ति के लिए
उसे उस युग दृष्टा
को सत्य मान
देह त्याग के पूर्व
भजना ही पड़ता है
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाये |"

यात्रा

मेरे जिस्म मेरी आत्मा को
कुरेदती चली गयी दुनिया
ज़ख्म बनते गए
और थाम लिया उसने अपने दोनों हांथों से हमें
कहकर
की कभी अकेला नहीं छोड़ेगा ,
कभी अब लोगों की भीड़ मुझे छल न सकेगी ,
और मैं फिर एक भरोसा
की हाँ यही अपना है
ये मुझे बचा लेगा
हाँ बस यही यही मुझे बेपनाह प्यार करता है |

पर कैसा ये प्यार है उसका ,
जिसकी वो रोज़ रोज़ दुहाई देता है ,

आज जब सबको छोड़ मैं जब
उसकी राह पर हूँ
वो रोज़ मुझे याद दिला रहा है
जो ज़ख्म मैंने उसे दिए ,
या मेरे उस अपनेपन ने
जो सबको अपना मानती रही |

वो रोज़ मुझे गलत साबित करता रहा
रोज़ मुझे और मेरे ज़ख्मों को कुरेदता रहा
और मुझे अपने ज़ख्मों से ज्यादा
दर्द इसलिए होता था
क्योंकि
वो ऐसा कर बार बार
कुरेद रहा था अपने जिस्म के ज़ख्म भी
जिनका कारन मैं ही थी ............

मैं चाहती थी
वो मेरे आज किये हर झगड़े को ,
मेरा अधिकार समझे
पर वो उन्हें फिर मेरी की एक भूल कहता रहा |
वो हमारे आज के प्यार को मेरा एहसास समझे
पर वो उसे मेरा प्रायश्चित समझता रहा |
मेरे हर एक आंसू को जो उसके लिए बहे थे
उन्हें मेरे अन्दर अपने दर्द का एहसास समझे
पर वो उन्हें
किसी और की याद समझता रहा |
शायद यही नियति है
यही नियति का फैसला
जब मैं उसकी नहीं थी
तब वो
मुझे अपना समझ
खुश होता रहा |
और आज
जब उसके अतिरिक्त
कोई नहीं
न सांसों में ,
न बातों में ,
न सुख में ,
न दुःख में ,
तब वो दुखी है
भूत को बार बार अपना वर्तमान बना |

बुरे स्वप्न

जब हर दर्द का कारन मैं हूँ ,
जो उसे मिले उनका भी
और जो मुझे मिले उनका भी .......
तो जीने का क्या मकसद
जब रोज़ रोज़ कुरेदा ही जाना है
उन ज़ख्मों को
और बना देना है नासूर उन्हें |
रोज़ सोच कर सोती हूँ ,
आज वो बुरे स्वप्न नींद नहीं ख़राब करेंगे
पर पूरे दिन मस्तिष्क में
भरे जाते हैं ,
वही विषैले स्वप्न ,
जो रात की नींद को
कर देते हैं बेचैन
और
फिर उन्ही स्वप्नों के साथ
जिन्हें मैं देखना नहीं ,
जी लेती हूँ मैं
एक नयी रात
खुली आँखों से |

Thursday, May 2, 2013

यादें

चूरन  की  चटपट , अमरक  की  करछाहट याद  आती  है ,
जब  बचपन  गुम हो  जाता  है  याद  उसी  की  आती  है ............

नन्हे  हांथों  में  होता  था  बस्ता  खुद  से  भी  भारी,
फिर  भी  पैदल  ही  जाते  थे , करते  थे  हम  शैतानी ,
रोज़  लडाई  मारा  पीटी  गुत्थम  गुत्था  होती  थी ,
लड़  कर  जब  रोती  थी  सहेली , खुद  की  भी  आँखे  रोती  थी ,
खो  खो  का  वो  खेल  याद  है , जबरन  धक्का  देते  थे ,
आउट  करने  के  चक्कर  में  घंटो  दौड़ा  देते  थे ,

बाबा  जी  के  बैस्कोपे  की  याद  कहानी  आती  है ,
इमली  की  सी  खट्टी  यादें  , भेल  पूरी  तरसाती  है

चूरन  की  चटपट , अमरक  की  करछाहट  याद  आती  है ,
जब  बचपन  गुम  हो  जाता  है  याद  उसी  की  आती  है |............



बचपन  के  वो  यार  दोस्त  जिनसे  लड़ते  ही  बीता  पल ,
याद बुढ़ापे  में  आते  हैं  , मन  होता  है  फिर  बेकल ,
लौट  के  जब  उस  गली  से  गुज़रें  , आंसू  की  लहर  सी  आती  है ,
कैथे  की  कडवाहट  भी  तब  मीठी  सी  हो  जाती  है ,

चूरन  की  चटपट , अमरक  की  करछाहट याद  आती  है ,
जब  बचपन  गुम  हो  जाता  है  याद  उसी  की  आती  है ............

क्षितिज

छोटे  छोटे  कदमों  से  हम  नापते  थे  आकाश  का  कद ,
डग  थे  छोटे  मगर  सदा  था मेरे  विश्वासों  में  दम |
लगता  था  चोटी  पर  जा  कर  परचम  लहरा  दूं  अपना ,

और  सत्य  कर  डालूँ  अपनी  आँखों  में  बसता जो  सपना ,
कोई  रोक  न  पाया  मुझको , था  न  इरादों  में  कुछ  कम ,

डग  थे  छोटे  मगर  सदा  था 
मेरे  विश्वासों  में  दम|
धरती  अपनी  सी  लगती  थी  , आसमान  को  ओढ़े  थी ,
फूलों  से  थी  दोस्ती  अपनी , तितलियों  संग  खेली  थी ,

सबको  अपना  ही  कहती  थी  , ऐसा  था  ये  भोला  मन ,

डग  थे  छोटे  मगर  सदा  था 
मेरे  विश्वासों  में  दम|

पहली याद

याद  है  मुझको  बचपन  के  दिन ,
सुबह  जगाये  जाते  थे ,
हम  रोते  थे  नहीं  नहाना ,
पर  नहलाये  जाते  थे |

रोज़  वही  रोटी  और  सब्जी  जब  मिलती  थी  खाने  को ,
रोज़  नहीं  मिलता  था  हमको  पार्क  खेलने  जाने  को ,
रोज़  वही  होमवर्क  का  झंझट ,
रोज़  वही  आना  कानी ,
कितनी  कोशिश  पर  भी  हो  ना  पाती थी  मनमानी ,

मम्मी  दिन  भर  धमकती  थी .....
शाम  को  पापा  आने  दो
और  तुम्हारी  दिन  भर  की  मुझे  शैतानी  बतलाने  दो ...
पढ़ने  लिखने  में  तो  नानी  याद  तुम्हे  आ  जाती  है
खेल  कूद  की  बातें  तुमको  इतना  क्यों  ललचाती  है .......

मम्मी  की  धमकी  से  डर  कर  , पल  भर  को  चुप  होती  थी ,
पापा  के  आ  जाने  पर  मैं  बन  बन  कर  फिर  रोटी  थी ,
मम्मी  ने  दंत  है  मुझको  पापा  को  बतलाती  थी .........
अभी  बहुत  छोटी  हूँ  पापा  ये  कह  कर  समझती  थी .......

पापा  मेरे  गोद  बिठा  कर  पहले  गले  लगते  थे ,
फिर  अपनी  मीठी  बातों  का  शहद  मुझे  चखलाते  थे .....
समझाते  थे  बिट्टो  मेरी  पढ़ना  बहुत  ज़रूरी  है
ना  पढ़ना  तो  बिटिया  मेरी  बहुत  बड़ी  कमजोरी  है ...

समझदार  बन  जोगी  ,परियों  की  रानी  आएगी ...
दूर  देश  की  सैर  कराने  वो  तुमको  ले  जाएगी ...
मम्मी  पापा  लाड  करेंगे .....चोकलेट दिलवायेंगे
जब  मेरी  बिटिया  रानी  के  अच्छे  नंबर  आयेंगे |

माँ


माँ किसी चेहरे का नाम नहीं ,
माँ तो वो है जिसे आराम नहीं ,
कभी रोटी से लिपट जाती है चटनी की तरह ,
और कभी मुझको झिड़कने के सिवा , 
उसके पास कोई और काम नहीं.................
बस सुबह उठ के चिडचिडाना शुरू करती है ,
सुबह उठता क्यूँ नहीं कह के मुझसे लड़ती है ,
लंच देती है मुझे बस्ता सही करती है, 
मेरी हर बात पे वो रोक टोक करती है ,
हाँथ में झाड़ू लिए दिन दिन भर वो ,
मेरा फैलाये हुए घर को साफ़ करती है ,
और जब शाम को आते है हमारे पापा ,
"क्या किया करती हो दिन भर ?" ये सुना करती है ,
हाँ माँ किसी चेहरे का नाम नहीं
वो तो वो है जिसे आराम नहीं.............................
रोज का सिर्फ यही ढर्रा है,
उनको तो टुन्न फुन्न करना है
कभी बस्ते की किताबों के लिए ,
कभी पढ़ने के रिवाजों के लिए ,
कभी मेरे सब्जी नहीं खाने के लिए ,
और कभी दूध बचाने के लिए,
कभी कहती है की सारा दिन मैं घर में रहता हूँ ,
कभी कहती हैं शनि पैर में है एक पल घर में नहीं रहता हूँ ,
कभी लगता है छोड़ छाड़ के सब भाग जाऊं,
पर मुझे याद फिर आ जाता है,
माँ किसी चेहरे का नाम नहीं,
माँ तो वो है जिसे आराम नहीं |


बस तुम

क्यूँ तुम बार बार ,
ये जान कर 
अपना पुरुषत्व 
पुष्ट करना चाहते हो ,
की कोई नहीं है तुम्हारे अतिरिक्त ,
जीवन में मेरे ,
देखी  है तुमने तो मेरी यात्रा ,
जिसका प्रारंभ भले तुमसे न हो ,
पर जिसका अंत ,
तुम हो 
बस तुम |

Wednesday, May 1, 2013

अर्धांगिनी

कैसे विश्वास दिलाऊँ तुम्हे ,
उस सच का ,
जो मेरे लिए मृत्यु सरीखा है ,
जो आना ही है |
और तुम्हारे लिए ,
मेरा वो सच
बस एक
बहाना ही है .........
खुद को छिपाने का ........
और मुझे लगता है ,
यही जरिया है
तुममे मिल जाने का |
खैर ये समझने समझाने का खेल
युगों तक खेला जाने वाला है ,
सीता हूँ मैं ,
अग्नि परीछा की मोहताज
बिना उसके कहाँ मिलेगा ,
अर्धांगिनी होने का ताज
तुझमे हूँ ,
तुझसे हूँ ,
ये शायद तुझे तब समझ आएगा ,
जब मेरे न रहने पर
रसोईं के बर्तन तुझसे कुछ न बोलेंगे ,
अलमारी में रखे तुम्हारे कपडे
लगे बटन का राज़ खोलेगे ,
और लौटने पर
तुम्हे
दरवाजे की देहरी पर खड़ी
मैं न मिलूंगी ,
बस मिलेंगी मेरी यादें|

Monday, April 29, 2013

परिचय

कैसे दूं मैं परिचय अपना ,
मैं ईश्वर की अनमोल कृति , 
जानी जाती हूँ मैं उससे ,
मैं उसकी पारस रूप निधि ,
मैं हूँ गंगा , मैं ही जमुना ,
मैं सरस्वती अन्मुखरित सी ,
मैं ब्रह्म ज्ञान की ज्ञानी और 
शिव योगी की पटरानी सी ,
मैं प्रातः का पहला कलरव ,
मैं गोधूली की प्रथम धूल ,
मैं राधा का संयोग और ,
मीरा के मन में बसा मूल ,
तुलसी की रामायण हूँ मैं ,
मैं ही कबीर का निर्गुण हूँ ,
रसखान के रस की खान हूँ मैं ,
मैं चिंतन मनन समर्पण हूँ ,
मुझमे ही बसता है नटखट ,
जो जग में पूजा जाता है ,
जग ढूँढता फिरता है जिसको ,
मेरा मन खुद में पाता है ||  

टूटता तारा

आँखें बंद थी ,
अधर मौन थे ,
ह्रदय अशांत था ,
और मैं स्तब्ध
घर की छत पर
कर रही थी इंतज़ार 
टूटते तारे का ,
जिसके आगे तोड़ देती मैं 
बरसों से बांधें उस बांध को ,
जो पहले अधरों पर था ,
शब्द फूट न सके ,
फिर नयनों पर था ,
आंसू छूट न सके ,
और न जाने कब और कैसे ,
ह्रदय पर भी बंध गया ,
अचानक टूटा तारा ,
और टूट गयी मैं भी उसके साथ ,
फिर तुम्हे मांगने को |

आह

तनहाइयों का दर्द 
तुम क्या जानो ,
तुमने तो हर बार ,
एक से अलग होने से पहले ,
दुसरे को ढूंढ लिया था ,
और किसी को फर्क भी न पड़ा था 
तुम्हारे ऐसे होने से ,
क्योंकि आइना बीच में था ,
और तुम्हारे तत्कालीन अक्स भी 
वैसे ही थे जैसे
तुम |
पर अब तुम्हे मालूम होगा 
आह का मतलब 
जो किसी की तन्हाई से निकल 
तेरी भीड़ भरी दुनिया से 
तुझे छीन ,
दे देगी तुझे भी 
अकेलेपन की आग |

Sunday, April 28, 2013

भ्रूण हत्या

अभी तो प्रगाश ने ,
अपनी तन्द्रा तोड़ी ही थी ,
निद्रा की चादर से 
रिश्तेदारी छोड़ी ही थी ,
अल्ला हू
अल्ला हू
की अजान
लबों से जोड़ी ही थी .............
१२ में जन्में प्रगाश का प्रकाश 
१३ में अन्धकार में 
कैसी है ये नियति 
कैसा है ये फैसला 
रिवाजों का 
रीतियों का 
या फिर
रूढ़ियों का,
जिन्होंने हमेशा भेद किया है 
स्त्री और पुरुष में ,
आज फिर दिखाई दिया है ,
भेद .......
जिसने प्रगाश की तीनो बालाओं की 
कर दी है भ्रूण हत्या
पहली करवट के साथ ही |

जख्म