मेरे मित्र

Thursday, May 9, 2013

समर्पण

तुम्हे देख
मेरा चुप हो जाना
मुझे तुम्हारे प्रति
अपना सम्मान लगता ,
और तुम्हे
अपने हाँथ से बनी रोटी खिला देना ,
तुम्हारे लिए अपना दाइत्व ,
तुम्हारे कमरे को समेट कर
मैं
यूँ प्रफुल्लित होती मानो
मैंने सारे जग की कलुषता धो दी हो ,
और तुम्हारे जाने के बाद ईश्वर से
तुम्हारे लिए प्रार्थना करना ,
तुम्हारे लिए मेरी परवाह ,
यूँ ही कई दिनों तक ,
चलता रहा ये खेल
खुद से आँख मिचोली का ,
आज ये क्या हुआ
तुम्हे सोते हुए
देखने की ख्वाहिश में ,
तुम्हारे कमरे के काउच पर ,
बैठे बैठे सो जाना,
और तुम्हारा जग कर ,
मुझे देख ,मुस्कुराकर,
चले जाना ,
शायद अब मैंने जाना है
की
ये सब मेरा तुम्हारे लिए
समर्पण था |     

No comments:

Post a Comment